कबीर से बड़ा स्पष्टवादी और कटु समीक्षक मुझे कोई नहीं दिखता। लगभग छठी क्लास से हम हर बच्चे को कबीर पढ़ाते हैं। इतने साल हो गए कबीर पढ़ाते-पढ़ाते। कितने बच्चों के जीवन में कबीर उतरा। स्कूल में पढ़ना तो छोड़िये जिन्होंने कबीर में पीएचडी कर ली, उनके जीवन में कबीर की बताई कितनी बातें नजर आती हैं। धर्म-पाखंड, जात-पांत, ऊंच-नीच से अगर हम नहीं निकल पाए तो कबीर पढ़ाने का फायदा क्या। कमी कबीर में नहीं है। कबीर तो सीधा-सीधा आइना दिखाते हैं। लेकिन कबीर के आइने में हम पढ़ने वाले कब खड़ा करते हैं। उसे तो लगता है, कोई कबीर थे, उनके दोहे क्या हैं, उनके भावार्थ क्या हैं और कितनी लाइनें लिखने पर कितने नंबर मिलते हैं। कबीर पढ़ने वाले का भी समय बेकार किया। और पढ़ाने वाले का भी। ना ही पढ़ाते तो क्या फर्क पड़ जाता।
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