Wednesday, December 7, 2016

Here is an example of understanding oneself

This is an example widely used during Jeevan Vidya workshops. Let us say A and B are two people, and we make a record of what A feels about a mistake he/she has made and about a mistake B has made. This is what it would look like:

A: I am a human being, and so is B.
A: I want to be happy, and perhaps B wants the same.
A: I make mistakes, and so does B.
A: When I do make a mistake, it is unintentional. B, however, almost always makes mistakes on purpose, because that is the kind of person he is. His family background, too, is like this.
A: If I make a mistake, I would like to be reprimanded gently. Even when I make repeated mistakes, I should still be reprimanded only gently. But if B commits mistakes, he can be scolded. If he does so repeatedly, he must be punished severely. Sometimes it appears as if he will not change if he is not taught a lesson.

This is what A feels about B. And perhaps, B also thinks the same about A. Now, place yourself in A's shoes. Think of any person around you who you feel fits into B's character at times or always. It could be your wife, your children, neighbour, a friend, a co-religionist, etc. Is it not possible that the B for your A, can perceive you as the B for his A? This is what is common between all of us. The more we realise this about all the Bs around us, the more our attitudes toward others will change. This will also change the way we think of ourselves.

स्वयं को जानने का एक उदाहरण

जीवन विद्या वर्कशॉप में एक उदाहरण बहुत प्रचलित है। मान लीजिए ए और बी दो आदमी हैं। और हम एक सूची बनाएं कि A अपनी किसी गलती के बारे में क्या सोचता है और B की गलती के बारे में क्या सोचता है। तो लिस्ट कुछ इस तरह बनेगी-

A : मैं एक इनसान हूं। B भी एक इनसान है।
A : मैं भी सुखी रहना चाहता हूं। B भी शायद सुखी रहना चाहता है।
A : मुझसे गलती हो जाती है। B से भी गलती हो जाती है।
A : मुझसे जब गलती होती है तो अनजाने में होती है। B कई बार और शायद ज्यादातर जानबूझकर गलती करता है। क्योंकि वो ऐसा ही है। उसका परिवार ऐसा ही है। उसकी पृष्ठभूमि ऐसी ही है। आदि-आदि।
A : मुझसे गलती हो तो मुझे प्यार से समझाया जाए। बार-बार गलती होने पर भी मुझे अच्छा लगेगा कि मुझे प्यार से ही समझाया जाए। लेकिन गलती होने पर B को डांटा जा सकता है। बार-बार गलतियां होने पर उसे कड़ा दंड दिया जाना चाहिए। और कुछ गलतियों पर तो लगता है कि B बिना दंड दिए मानेगा नहीं।

ये तो 'A' 'B' के बारे में सोचता है। ‘बी’ ए के बारे में क्या सोचता है। शायद एकदम ऐसा ही। अब जरा यहां से ए और बी को हटाकर पहले स्वयं को ए के स्थान पर रखकर देखें। और अपने आसपास ऐसे लोगों के बारे में सोचें जो आपको कभी-कभी या अकसर बी जैसे दिखते हैं। यह बी आपकी पत्नी, आपका बच्चा, आपका पड़ोसी, आपका कोई मित्र,किसी एक धर्म या जाति से ताल्लुक रखने वाला, सड़क पर चलने वाला कोई भी हो सकता है। अब जरा सोचिये कि जिन-जिन लोगों के बारे में आप ऐसे विचार रखते हैं जो ए बी के बारे में रखता है। उनमें से अगर किसी व्यक्ति को एक ही जगह रख दिया जाए तो क्या उसके विचार भी आपके बारे में एकदम वैसे ही नहीं होंगे जैसे आपके थे। यही आपमें और उनमें कॉमन है। इस ओर ध्यान देना है। जितना इस ओर ध्यान देने का अभ्यास होगा उतना हमारी अपने आसपास के सभी बी के बारे में सोच बदलती चली जाएगी। हमारी अपने बारे में सोच बदलती चली जाएगी।

Sunday, December 4, 2016

Can we transform the behavior of children?

Once a colleague asked me, While it is true that we can work on children's talent through education, can we similarly work on their behaviour? Can we influence their nature? I replied in the affirmative. But, for that, it is important that children are able to understand themselves, I added. He asked me, Does that require the teaching of matters of the soul and spirituality? Of course not, I replied. It will require the teaching of certain topics scientifically.

The day children begin to understand themselves, they will realise that they are quite similar in many ways with other children. They will realise that there are some qualities within us that are common to all. This is how education can begin to affect behaviour. This is how we can influence the nature of children. It is unfortunate that we neither have any curriculum for this, nor any policies.

क्या बच्चों का व्यवहार बदला जा सकता है?

मुझसे एक दिन एक सहयोगी ने कहा कि शिक्षा के जरिये हम बच्चे के टैलेंट पर तो काम कर सकते हैं। लेकिन क्या हम उसके व्यवहार पर काम कर सकते हैं? क्या हम उसके स्वभाव पर काम कर सकते हैं? मैंने कहा, बिलकुल कर सकते हैं। लेकिन उसके लिए स्व-भाव यानी स्वयं को जानना जरूरी है। उन्होंने पूछा कि क्या इसके लिए आत्मा-परमात्मा पढ़ाना पड़ेगा। मैंने कहा, हरगिज नहीं। सिर्फ क्लासरूम में कुछ बातों को वैज्ञानिक तरीके से रखना पड़ेगा और उनका अभ्यास कराना पड़ेगा।

जिस दिन बच्चा स्वयं के बारे में जानने लगेगा तो वह पाएगा कि उसकी स्वयं की बहुत सारी क्वालिटीज सामने वाले बच्चे में भी हैं। वह यह भी देखेगा कि उसकी कुछ क्वालिटीज सारे बच्चों में हैं। यहीं से व्यवहार पर काम होना शुरू होगा। यहीं से स्वभाव के बदलने का काम शुरू होगा। लेकिन दुर्भाग्य से अभी न हमारे पास इसका कोई पाठ्यक्रम है और न कोई कार्यक्रम।

Friday, December 2, 2016

Education begins with understanding the self

If there are 40 children in one class, there would be many qualities that are common to all children. Habits, thought processes, ideas, questions.. and other such things. I have not come across a single book that helps identify what these common qualities are.

Can such a book be written? Can such a curriculum be designed? Can it be taught? Absolutely, yes. Every child can be taught to identify how he or she is similar to any other child. But to recognise these similarities, one must be able to understand oneself. This is why it is important to begin with learning about oneself.

शिक्षा की शुरुआत, स्वयं को समझने से

एक क्लासरूम में अगर 40 बच्चे पढ़ते हैं तो बहुत सारे ऐसे गुण होंगे जो हर बच्चे में होंगे। कुछ आदतें, कुछ प्रतिक्रियाएं, सोचने का तरीका, मन में उठने वाले विचार...ऐसा ही बहुत कुछ। मुझे कोई किताब नहीं दिखती जो एक क्लास के सारे बच्चों की कॉमन क्वालिटीज को पहचानने में बच्चों की मदद करे।

क्या ऐसी किताब बन सकती है? क्या ऐसा पाठ्यक्रम बन सकता है? क्या यह पढ़ाया जा सकता है? बिलकुल हो सकता है। हर बच्चा यह अच्छे से पहचान सकता है कि मुझमें और सामने वाले बच्चे में क्या कॉमन है। लेकिन सामने वाले बच्चे को जानने से पहले उसे अपने बारे में जानना जरूरी है। इसलिए इसकी शुरुआत स्वयं की शिक्षा से करनी पड़ेगी।

Wednesday, November 30, 2016

What should we value - Uniqueness or Commonality?

I have observed that in many schools, good teachers put in a lot of effort into all children. They believe every child has some unique quality that sets him or her apart. Our good teachers expend all their efforts in trying to bring out those unique abilities.

But do we recognise that if we go beyond what is unique in all children, there is something inherently common to them all? Do we tell children about all the things that are actually common in them?

While it is true that every child has a special, unique quality, it is also true that some things are common to every child. The role of education is to bring out what is unique and to recognise what is common. I believe that the day all of our schools begin to identify all of the things common to each child, all conflicts will be over. Religious and caste differences will not matter. Peace in its real sense will be established.

किसे महत्त्व दें - जो ख़ास है या जो सब में सामान है?

मैंने कई स्कूलों में देखा है कि बहुत से अच्छे अध्यापक बच्चों के साथ बहुत मेहनत करते हैं। वो कहते हैं कि हर बच्चे में कुछ खास है। यूनीक है। वह यूनीक ही बच्चे की प्रतिभा है। हमारे अच्छे अध्यापकों की पूरी मेहनत बच्चे की यूनीक प्रतिभा को निखारने में लगी रहती है। क्योंकि हर बच्चे में कुछ यूनीक है।

लेकिन क्या कभी मैंने ये सोचा है कि हर बच्चे में कुछ कॉमन भी है? क्या हम इस बात पर मेहनत करते हैं कि हर बच्चा अपने और अपने साथ बैठे बच्चों के बारे में वो बातें जान सके जो उनमें कॉमन है। जो सब में है।

यह बात ठीक है कि हर बच्चे में कुछ यूनीक है। लेकिन यह भी सच है कि हर बच्चे में कुछ कॉमन भी है। शिक्षा का काम यूनीक को निखारना है तो कॉमन की पहचान भी कराना है। मेरा मानना है कि जिस दिन देश के सारे स्कूल बच्चों में कॉमन की पहचान कराने लगेंगे। उस दिन सारे झगड़े मिट जाएंगे। धर्म-जाति बेमानी हो जाएंगे। सही मायने में शांति की स्थापना होगी।

Tuesday, November 29, 2016

The World is Changing. And our schools?

The world is rapidly changing. Yet in our classrooms, our textbooks and curricula are still living in the past – with knowledge that is 20-25 years old. But the child studying in the classroom today will live in the world of tomorrow. Do you remember how the world looked like 25 years ago? Before Google, YouTube, Twitter, Facebook, Internet, computers and smartphones? There is so much around us today that was simply unimaginable 25 years ago. And this holds true for the future as well. We can’t imagine what the world will be like in the next 25 years. But we do know it is a challenge that we have to prepare today’s children for that unknown future.

It’s not just that the technology is changing rapidly. The definition of success too is changing.

Around 10 years ago I read in Forbes magazine that the person who would become the most successful person 25 years from now hasn’t even been born yet. And the profession he will choose and the work that he’ll do to become the world’s most successful person doesn’t even exist yet. This is true. The founders of Google, Facebook, Twitter, Oyo, Flipkart, Paytm, LinkedIn, Amazon, WhatsApp and other revolutionary creations were all aged around 25 years. But 20 years ago who would have believed that Twitter, Facebook and Amazon would lead to an Information Revolution and transform the way the world conducts its business?

दुनिया तेज़ी से बदल रही है और हमारे स्कूल?

आज दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। हम क्लासरूम्स में, किताबों में, पाठ्यक्रम में आज से 20-25 साल या उससे भी ज्यादा पुरानी बातें लेकर बैठे हैं। जबकि जो बच्चा हमारी क्लासरूम में आज पढ़ रहा है उसे कल की दुनिया में जीना है। याद करके देखिये कि 20-25 साल पहले की दुनिया कैसी थी। गूगल, यू ट्यूब, टिवटर, फेसबुक, इंटरनेट, कंप्यूटर, स्मार्टफोन कहां खड़े थे? आज बहुत कुछ ऐसा है जिसकी 25 साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। और यही बात अगले 25 साल के लिए भी सच है। 25 साल बाद की दुनिया कैसी होगी, हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते लेकिन फिर भी हमारे सामने चुनौती है कि हम अपने बच्चों को उस दुनिया के लिए तैयार करें।

दुनिया में सिर्फ टेक्नोलॉजी नहीं बदल रही है। सफलता के मायने भी बदल रहे हैं।

शायद 10 साल पहले मैंने फोब् र्स मैगजीन में पढ़ा था कि आज से 25 साल बाद जो व्यक्ति इस दुनिया का सबसे सफल इनसान होगा, वो अभी पैदा नहीं हुआ है। और जिस काम को करके, जिस प्रोफेशन से, वो दुनिया का सबसे सफल आदमी बनेगा, वो प्रोफेशन अभी शुरू ही नहीं हुआ है। ये बात बिलकुल सटीक है। गूगल, फेसबुक, ट्वीटर, ओयो, फ्लिपकार्ट, पेटीएम, लिंकडेन, एमजॉन, वाट्सएप जैसी अनेक क्रांतिकारी खोज करके सफलता के मुकाम पर पहुंचने वालों की उम्र 25 के आसपास ही थी। 20 साल पहले कौन सोच सकता था कि ट्वीटर, फेसबुक, एमजॉन जैसी कोई चीज ईजाद होगी जिससे सूचना क्रांति और व्यापार की दिशा बदल जाएगी।

Monday, November 28, 2016

Too much glorification of past : our national time pass

When I see the books of school children these days it seems to me that we seem to worship antiquity a lot. And maybe that is why our children grow up and stay lost in a glorified past. As in – we have a glorious past, India was a world leader, or India was known as the golden bird etc. It may have been true at one time. But where is India today? Where will we be tomorrow?

The thing is that we are not future-oriented. We must stop chanting the glories of the past. It seems to me that had Einstein been born in India, we would have created a chalisa prayer in his name. There would have been a temple of him in the Himalayas. And we would have said, “Go and do a circuit of Einstein Baba’s temple while reciting the Einstein chalisa. You’ll understand all science!”

Our education overemphasises our celebrated past. It appears that a huge chunk of our educated society is drowning in the glorification of the past – of our nation, of our family and self.

अतीत की गुणगान चालीसा : राष्ट्रीय बीमारी

स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की किताबों को मैं देखता हूं तो मुझे लगता है कि हम अतीत का गुणगान बहुत करते हैं। और शायद इसी वजह से हमारे बच्चे बड़े होकर अतीत के गुणगान में ही खोये रहते हैं। जैसे- हमारा इतिहास बहुत गौरवशाली रहा है, भारत जगतगुरु रहा है, हम सोने की चिड़िया थे...। ये सब रहा होगा। लेकिन आज कहां है? और कल कहां हो सकते हैं?

हम फ्यूचर ओरियंटेड नहीं हैं। हमें अतीत के गुणगान वाले चालीसा को बंद करना चाहिए। मुझे तो लगता है कि अगर आइंस्टीन हिंदुस्तान में पैदा हुए होते तो हमने उनके नाम पर चालीसा बना दिया होता। हिमालय पर उनका एक मंदिर होता। और हम कहते कि जाकर आइंस्टीन बाबा के मंदिर की परिक्रमा कर आओ और आइंस्टीन चालीसा पढ़ते रहो...सारा विज्ञान समझ में आ जाएगा।

हम शिक्षा में अतीत के गुणगान पर ज्यादा जोर देते हैं। और हमारे शिक्षित समाज का एक बड़ा हिस्सा अपने देश के, अपने परिवार के और खुद के अतीत के महिमामंडन के रस में डूबा पड़ा है।

Tuesday, November 22, 2016

How we define India: History or Future?

Once I asked a student from Class 11 or 12 to say a few lines about India. Pat came the answer "The name of my country is.. it is a great nation.. stretches from Kashmir to Kanyakumari.. freed from the British by Mahatma Gandhi.. Nehru was the first Prime Minister..

I was stunned. Is this the identity of our country or its history? If this is the identity, does it have any space for a future? If a Class 12 student does not associate India's present with its identity, does not imagine a tomorrow, or does not see a place for himself or herself in its future, then something is amiss! Are we producing the future generation of citizens or citizens that dwell in the past?

भारत का कल कहाँ है?

एक क्लास में मैंने एक दिन एक बच्चे से पूछा भारत के बारे में चार लाइनें बोलो। शायद 11वीं या 12वीं की क्लास थी। बच्चे बड़े होनहार थे। उस बच्चे ने तपाक से भारत के बारे में चार लाइनें बोलीं। मेरे देश का नाम ... बड़ा महान...कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैला...गांधी जी ने आजाद कराया था...नेहरू जी पहले प्रधानमंत्री थे...।

मैं अवाक रह गया। ये मेरे देश का परिचय है या मेरे देश का इतिहास? अगर ये परिचय है तो फिर इसमें आने वाले कल का हिंदुस्तान कहां है? 12वीं क्लास का बच्चा अगर देश के परिचय में आज के भारत की बात नहीं करता, कल के भारत को नहीं रखता, कल के भारत में अपनी भूमिका-अपनी उपयोगिता नहीं देखता, तो ये तो बड़ी गलती हो रही है। हम भावी भारत के नागरिक तैयार कर रहे हैं या इतिहास के शोधकर्ता?

Sunday, November 20, 2016

Teachers are now focused solely on teaching

After taking over as Delhi's Education Minister, I called for a convention of all government school teachers and told them, Do everything you can to turn around our children's future and I will ensure you are provided with the best facilities at work. During this session with them I learned about a serious impediment faced by teachers. They were almost always on census or family registry duty, which left them with little time to focus on teaching. They are also deployed in election duty, apart from other government scheme-related duties.

Soon after, I directed the Education Department to ensure that no government school teachers are deployed on census, family register duties, etc. The relevant departments were asked to make alternative arrangements for these works. It is my hope that in times to come, teachers are also relieved of election duty.

Apart from this, due to an acute shortage of ministerial staff, teachers were forced to make bills, vouchers, maintain records and diaries, among other such clerical work. This diverted part of their attention from teaching children. With this in mind, we have given Principals the authority to hire ministerial staff to ease the pressure borne by teachers.

टीचर्स अब केवल पढ़ाई पर फोकस करते हैं

शिक्षा मंत्री पद संभालने के बाद मैंने दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों का एक सम्मेलन बुलाकर उनसे कहा कि आप हमारे बच्चों का भविष्य संवार दो। बदले में आपको जो भी सहूलियतें-सुविधाएं चाहिए, हम देंगे। इस सेमिनार में शिक्षकों का सबसे बड़ा दर्द सामने आया। वो ये था कि वे बच्चों की पढ़ाई पर पूरा फोकस इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि उनकी ड्यूटी कभी जनगणना में तो कभी फैमिली रजिस्टर भरने में लगा दी जाती है। चुनाव में भी वो ड्यूटी करते हैं और सरकार के विभिन्न तरह के विशेष अभियानों में भी।

इसके बाद मैंने एक व्यवस्था की कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक अब फैमिली रजिस्टर और जनगणना इत्यादि की ड्यूटी में नहीं जाएंगे। इन कामों के लिए संबंधित विभाग दूसरी व्यवस्थाएं करें। मैं चाहता हूं कि आने वाले वक्त में चुनाव के समय होने वाली ड्यूटी से भी टीचर्स को मुक्त रखा जाए।

इसके अलावा स्कूलों में मिनिस्ट्रियल स्टाफ की कमी के कारण शिक्षकों को ही बिल, बाउचर,रिकॉर्ड मेनटेनेंस, डायरी मेनटेनेंस जैसे अनेक लिपिकीय कार्य भी करने पड़ते थे। इससे वे बच्चों को पढ़ाने पर कम ध्यान दे पाते थे। इसलिए हमने प्रधानाचार्यों को मिनिस्ट्रियल स्टाफ की नियुक्ति का अधिकार दे दिया है ताकि शिक्षकों के ऊपर से बोझ कम किया जा सके।

Saturday, November 19, 2016

Increased autonomy for Principals

After assuming charge as Delhi's Education Minister, I initiated a dialogue with Government school principals. I interacted with them both, one-to-one and in groups. After I spoke to some Principals about problems with their schools during visits, it came to my knowledge that Principals are highly disemboweled. Even to undertake small tasks in their school, they were mandated to send files to senior officials, which more often than not, got stuck in red tape. Principals are responsible for the education of thousands of children, but out system doesn't trust them to handle even Rs 5-10 thousand without prior clearance.

In a break from tradition, I granted significantly more autonomy to principals. A Principal is the leader of a school. How will a leader function without any authority? I issued special guidelines to the effect that Principals did not need to send files for every ordinary work to be done in the school to the Deputy Director. Principals now enjoy far more autonomy than they used to.

बढ़ाए प्रधानाचार्यों के अधिकार

दिल्ली के शिक्षा मंत्री का पदभार संभालने के बाद मैंने प्रधानाचार्यों के साथ संवाद शुरू किया। छोटे-छोटे समूहों में भी संवाद हुए और व्यक्तिगत भी। स्कूल विजिट के दौरान जब स्कूलों में मौजूद कमियों को लेकर प्रधानाचार्यों से बात की तो पता चला कि उनको बहुत छोटे-छोटे कामों के लिए भी स्वतंत्रता नहीं है। बहुत छोटे-छोटे कामों के लिए उनको शिक्षा विभाग के सीनियर अफसरों के पास फाइल भेजनी पड़ती है। ये फाइलें इस टेबल से उस टेबल तक चलती रहती हैं और स्कूलों में हालात जस के तस बने रहते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ कि जिस प्रधानाचार्य के हाथ में हम अपने हजारों बच्चों का भविष्य सौंप देते हैं, उस पर हमारा सिस्टम 5 से 10 हजार रुपये के लिए भरोसा नहीं करता। ये तो ठीक नहीं है।

इसलिए मैंने परंपराओं को तोड़कर प्रधानाचार्यों के अधिकारों को बढ़ाया। प्रधानाचार्य एक स्कूल का लीडर होता है और अगर लीडर के पास अधिकार ही नहीं होंगे तो वो फैसले कैसे ले पाएगा? प्रधानाध्यापकों की फाइनेंशियल पावर बढ़ाने के लिए मैंने एक विशेष दिशानिर्देश जारी किया ताकि स्कूल से संबंधित सामान्य कार्यों की हर फाइल उन्हें उप-शिक्षा निदेशक के पास न भेजनी पड़े। अब स्कूल संबंधित अधिकतर कार्यों पर निर्णय लेना प्रधानाध्यापक के अधिकार क्षेत्र में है।

Friday, November 18, 2016

हताश और निराश करता एक स्कूल

आज एक ऐसे सरकारी स्कूल में गया जहां पिछले 20 महीने की हम सबकी मेहनत बेकार जाती दिखी। सरकार में आते ही हर स्कूल में कंप्यूटर लैब और कंप्यूटर इंस्ट्रक्टर की व्यवस्था की थी। बहुत से स्कूलों में बच्चों को कंप्यूटर पर काम करते देख ख़ुशी भी हुई है। लेकिन ....

आज अचानक पूर्वी दिल्ली के सबोली क्षेत्र में एक स्कूल में गया। स्कूल में भरपूर गन्दगी थी। नए क्लासरूम्स बन रहे हैं। और शायद कंस्ट्रक्शन की वजह से धूल मिट्टी के प्रति स्वीकृति हमारे चरित्र में बसी हुई है इसलिए कोई यह सोचता भी नहीं है कि कंस्ट्रक्शन के इलाके में भी साफ़ सफाई रह सकती है। खैर ! स्कूल में अंदर पहुंचते ही बच्चों के एक ग्रुप ने चुपके से कान में कहा - सर यहाँ पर कंप्यूटर क्लास कभी नहीं होती है। मैं कंप्यूयर रूम में पहुंचा। वहां एक कंप्यूटर पर दो क्लर्क काम कर रहे थे। एक पर इंस्ट्रक्टर कुछ काम कर रहे थे। बाकी 9-10 कंप्यूटर नए जैसे डस्ट कवर से ढके रखे थे। शायद उनका जन्म ही कवर ओढ़कर बैठे रहने के लिए हुआ था।

कंप्यूटर टीचर और मेरी बातचीत मर्म आपको 10 मिनट का ये सम्पादित अंश सुनकर ही समझ में आ सकता है। देखिए कि किस तरह एक कंप्यूटर टीचर और प्रिंसिपल मिलकर अपने शिक्षा मंत्री को मूर्ख बनाने की कोशिश करते हैं लेकिन बच्चों के सच बोलते ही पकड़े जाते हैं। इसे देखे और सोचे कि मिनिस्टर और कई अधिकारियों और बहुत से वालंटियर्स की दिन रात की मेहनत के बावजूद अगर ये हालात हैं तो क्या इन्हें कभी सुधारा जा सकता है। क्या हम सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 16 लाख बच्चों के भविष्य को लेकर कभी आश्वस्त हो सकते है?

यह स्कूल सिर्फ दुखी नहीं करता, निराश और हताश भी करता है।

शायद इसकी एक वजह है सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के प्रति प्रबुद्ध समाज का नज़रिया। अपनी समृद्धि और पढ़ाई लिखाई के अहंकार में डूबा एक वर्ग सोचता है कि इन बच्चों को कंप्यूटर जैसी शिक्षा देने पर मेहनत करने की क्या ज़रूरत है। ये तो बड़े लोगों के लिए है। इन बच्चों को तो बस बैठने के लिए स्कूल मिल जाए और इन्हें भेड़ बकरियों की तरह भरकर किसी तरह स्कूल पर करा दिया जाय, इतना बहुत है। दुर्भाग्य है कि यह मानसिकता अपने कुछ साथियों में भी देखने को मिल रही है।

Thursday, November 17, 2016

Schools and colleges are not arenas for religion or caste

In spite of being an Education Minister, I am participating in today's protest because I am also concerned about the state of education. I am worried that for the state education has come to mean construction of new schools, distribution of mid-day meals, distribution of uniforms & textbooks, among other things. Education means so much more than the mere appointment of teachers. At a time when those running the Central government are disturbing India's communal harmony, breaking backs of traders, dividing society along religious and caste lines, education becomes even more significant. I have come here today in solidarity with the concern that an attempt is being made to influence education also with their venomous agenda.

A conspiracy is being hatched to destroy our education system. They want to use education to spread venom, the way they use politics. If they are able to influence education, there would be a permanent impact on an entire generation. If they succeed at brainwashing children along religious and communal lines, there would be no meaning to schools and colleges. My worry is that these places of learning will turn into shakhas of the RSS.

As Minister of Education, it is my duty to protect universities, colleges and schools from being converted into arenas for religious and caste politics. India's most reputed university, JNU, has already been systematically maligned. The IITs and IIMs are no more in the news for their world class research. Instead, they make headlines because of the confrontation between the government and such institutions.

Vice-chancellors who refuse to toe the line, or those who refuse to implement this government's arbitrary and divisive policies, are being tormented. As Delhi's Education Minister, it is my responsibility to oppose such policies.

I'm not opposed to any group, community or religion. My goal is to prevent our schools and colleges from turning into arenas of religious and caste politics. We want to produce good human beings and professionals from our schools and colleges, not a mob that is preoccupied with religion and caste. Missionary schools, madarasas and saraswati shishu mandirs operate across the country. Our goal is that in all of these schools the curriculum must be backed by science. It must be forward-looking. We don't want to produce a generation of children stuck in the past. We want them to think into the future!

This is what makes it so important to voice our opposition to any move which aims to make schools and colleges centres for religion and caste. I assure you that I will support any such resistance.

स्कूल-कॉलेज धर्म या जाति का अखाड़ा नहीं

मैं दिल्ली का शिक्षा मंत्री होते हुए भी शिक्षा पर हो रहे इस प्रोटेस्ट में शामिल हूं तो इसलिए, क्योंकि मुझे भी शिक्षा की चिंता है। मुझे इस बात की चिंता है कि शिक्षा का मतलब सिर्फ स्कूल खोलना, मिड-डे मील बांटना, यूनिफॉर्म-किताब बांटना या कमरे बनवाना नहीं है। शिक्षा का मतलब सिर्फ टीचर्स का एप्वाइंटमेंट करना नहीं है। जिस समय केंद्र की सत्ता में बैठे लोग, पूरे देश में सामाजिक ताने-बाने को तोड़ रहे हैं, जिस तरह से अपनी नीतियों से व्यापार की कमर तोड़ रहे हैं, जिस तरह धर्म और जातियों के नाम पर लड़ाई करवाकर समाज को बांटा जा रहा है, उस सारी साजिश के बीच शिक्षा की भूमिका अहम हो जाती है। लेकिन आज मैं इस चिंता में शामिल होने आया हूं कि शिक्षा को भी उसी तरह जहरीला बनाने की तैयारी की जा रही है।

साजिश रची जा रही है कि किसी तरह शिक्षा को बदल दो। उसे बर्बाद कर दो। जो जहर राजनीति के जरिये घोलने की कोशिश की जाती रही है, वही जहर एजुकेशन के जरिये घोलने की कोशिश की जा रही है। एजुकेशन में जहर घोलने का मतलब है कि देश की भावी पीढ़ी के माइंडसेट में स्थायी रूप से ये जहर घोलना। मुझे इस बात की चिंता है कि अगर शिक्षा में ये लोग धर्म और संप्रदाय का जहर घोलने में कामयाब हो गए तो स्कूल और कॉलेजों का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। मुझे इस बात की चिंता है कि जिन्हें हम स्कूल-कॉलेज कहते हैं, कल उन्हें आरएसएस की शाखा न कहा जाने लगे।

शिक्षा मंत्री होने के नाते मेरी ये जिम्मेदारी है कि देश की यूनिवर्सिटीज, स्कूलों, कॉलेजों को धर्म व जाति की राजनीति का अखाड़ा होने से बचाया जाए। देश की सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी जेएनयू को बदनाम करके रख दिया गया है। आईआईटी और मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट्स से विश्वस्तरीय रिसर्च की खबरें नहीं आ रहीं, बल्कि सरकार और संस्थानों के बीच राजनीतिक टकराव की खबरें आ रही हैं। जो वाइस चांसलर सरकार की नीतियों के आगे घुटने नहीं टेक रहे, जो इनकी मनचाही जहर भरी नीतियों को लागू करने से मना करते हैं, उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है। दिल्ली का शिक्षा मंत्री होने के नाते इनका विरोध करना मेरी जिम्मेदारी है।

मेरा विरोध किसी एक समूह, संप्रदाय या धर्म से नहीं है। मेरा मकसद है कि देश के स्कूलों और कॉलेजों को किसी भी जाति-धर्म की राजनीति का अखाड़ा बनने से बचाना। स्कूलों-कॉलेजों में हमें अच्छे इनसान और अच्छे प्रोफेशनल्स तैयार करने हैं, धर्म और जाति में उलझी भीड़ नहीं। भारत के ताने-बाने में मिशनरी स्कूल भी हैं, मदरसे भी हैं और सरस्वती शिशु मंदिर भी हैं। लेकिन भारत के स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम के पीछे की सोच वैज्ञानिक होनी चाहिए। फॉरवर्ड लुकिंग होनी चाहिए। हमें 50 साल पुराने नहीं, 50 साल आगे के भारत के लोग तैयार करने हैं।

इसलिए ये आवाज उठनी जरूरी है कि हम मिलकर किसी भी ऐसी कोशिश का विरोध करें जो स्कूलों-कॉलेजों को किसी एक धर्म या जाति की शिक्षा का केंद्र बना दे। और मैं भरोसा दिलाना चाहता हूं कि ऐसी किसी भी लड़ाई में मैं आपके साथ हूं।

(केंद्र सरकार की प्रस्तावित शिक्षा नीति के विरोध में ‘ज्वाइंट एक्शन कमेटी अगेंस्ट द एंटी-पीपल एजुकेशन पॉलिसी’ द्वारा आज संसद मार्ग पर आयोजित प्रोटेस्ट में आज दिए गए विचार)

Wednesday, November 16, 2016

Appointment of Estate Managers changed the face of Government schools

After we formed the Government, I started conducting surprise inspections of government schools. During my visits, I was confronted with a major problem faced by all of our schools. Grounds, corridors, classrooms, laboratories, toilets - they were all unclean. Even if some classrooms were occasionally cleaned, the garbage was just swept into one corner of the room. Cobwebs in classrooms, deep red tobacco stains on walls, broken toilets, broken taps, plaster peeling off from surfaces, lavatories without doors - these were all characteristics of most schools. The responsibility for maintenance and upkeep of the school premises typically lay with the Principal or Vice-Principal, despite the fact that this was nowhere in their job descriptions as education administrators.

After recognising this problem, I appointed an estate manager in every school. Principals were granted autonomy to appoint or relieve estate managers. Retired military personnel were popular choices for the position.

With the appointment of estate managers, the condition of schools changed drastically. Not only did cleanliness improve, but toilets were fixed, clean drinking water was readily made available, general maintenance was superior. But perhaps those most happy with this decision were principals, vice-principals and senior teachers, who no longer had to look after the school building's maintenance. They were free to focus solely on the academic prowess of children.

एस्टेट मैनेजर्स की नियुक्ति ने बदली स्कूलों की तस्वीर

सरकार बनने के बाद मैंने स्कूलों में सरप्राइज इंस्पेक्शन शुरू किया। तब वहां मेरा सामना स्कूलों की सबसे बड़ी समस्या से हुआ। वह थी गंदगी। कैंपस में गंदगी। क्लासरूम्स और लैब्स में गंदगी। कभी झाड़ू लगा भी, तो कूड़ा क्लासरूम्स के कोनों में ही इकट्ठा कर दिया गया। क्लासरूम्स में लगे जाले। दीवारों पर पान और गुटखे की पीक। टूटे टॉयलेट। टूटे नल। कहीं दीवारों से उजड़ता प्लास्टर, तो कहीं टॉयलेट में दरवाजे नहीं। ज्यादातर स्कूलों के हालात ऐसे ही थे। इन सब व्यवस्थाओं देखरेख का जिम्मा प्रिंसिपल या वाइस-प्रिंसिपल या किसी सीनियर टीचर के पास होता था। जबकि ये उनका काम नहीं था। उनका काम था बच्चों को पढ़ाना।

इसलिए मैंने हर स्कूल में एक-एक एस्टेट मैनेजर की नियुक्ति करवाई। एस्टेट मैनेजर की नियुक्ति और इनको हटाने की जिम्मेदारी प्रिंसिपल को सौंपी गई। एस्टेट मैनेजर के पद पर ज्यादातर सेना इत्यादि से रिटायर्ड लोगों को काम मौका मिला।

इस कदम से स्कूल साफ-सुथरे रहने लगे। स्कूल में साफ-सफाई के साथ-साथ टॉयलेट, पीने का साफ पानी, बिल्डिंग का रखरखाव इत्यादि सब दुरुस्त हो गया। लेकिन इस पहल से सबसे ज्यादा राहत प्रिंसिपल, वाइस-प्रिंसिपल या सीनियर टीचर्स को हुई। उन्हें अपने काम यानी बच्चों की पढ़ाई पर फोकस करने का मौका मिला। इस तरह एक एस्टेट मैनेजर के आने से स्कूलों की तस्वीर बदलने लगी।

Tuesday, November 15, 2016

What are children learning from fairy-tales?

We have been using fairy tales like Snow White and Cinderella, to encourage healthy reading habits among children. These stories are effective as a means to ignite imagination and build language skills. But when children read them, their impact on them is not merely restricted to the expansion of vocabulary.

For a moment, let's think about what these stories ingrain in young impressionable minds. Typically, a woman is turned into a beautiful or ugly being by a 'good' angel or an 'evil' witch as the case might be. The implication of being ugly is that the woman has bad luck, while that of being beautiful is that a charming prince will enter her life and she will be happy ever after. Beauty is only in reference to physical beauty in such stories.

What impact are such fairy tales having on children? Are they not reinforcing regressive ideas of outer beauty? Does this not negatively affect those young children who are perceived to be lacking in certain physical features that society considers 'beautiful'? Perhaps this also forces children who read these stories, especially girls, to pursue a false ideal of beauty at all costs, even if it requires the use of fairness creams!

We are so disconnected by what ails our education system, that we do not realise how little children are indoctrinated with the idea that physical beauty translates into better fortunes.

As children grow up, they are exposed to market forces that further exploit these vulnerabilities, whether it is in the form of advertising that glorifies fair skin or otherwise.

कहानियाँ क्या सिखाती हैं?

हम सब अपने बच्चों को फेयरीटेल्स पढ़ाते हैं। स्नोव्हाइट, सिंड्रेला। परियों की कहानियां। ये कहानियां भाषा, कल्पना के लिहाज से पढ़ना अच्छा है। बच्चों की पढ़ने में रुचि पैदा होती है। लेकिन जब बच्चा इसको पढ़ रहा है तो कहानी की घटनाओँ का असर उस पर सिर्फ भाषा या शब्द सीखने तक नहीं रहता। ये असर 360 डिग्री रहता है।

अब सोचिये ये कहानियां क्या सिखाती हैं। एक बहुत खूबसूरत लड़की होती है। कोई जादूगरनी या परी होती है। जो उसे बदसूरत या खूबसूरत बना देती है। बदसूरत होना मतलब किस्मत खराब होना। और खूबसूरत होना मतलब- अच्छे दिन। सपनों का राजकुमार मिल जाना। और बदसूरत या खूबसूरत होना इन कहानियों में सिर्फ शारीरिक सौंदर्य के संदर्भ में होता है।

तो ऐसी कहानियां मन पर क्या असर डाल रही हैं। क्या ये बच्चे के अंदर सुंदर होने और दिखने की चाहत पर जोर नहीं दे रहीं? क्या ये नैन-नक्श के मापदंड पर सुंदर नहीं माने-जाने वाले बच्चों के अंदर कुंठा भाव पैदा नहीं कर रही हैं? क्या इन्हें पढ़ने वाला हर बच्चा और विशेषकर लड़कियां किसी भी कीमत पर सुंदर होने की चाहत में नहीं डूब जाते हैं?भले ही उसके लिए फेयर एंड लवली लगानी पड़े।

हमें पता ही नहीं है हम अपने एजुकेशन में क्या गलती कर रहे हैं। हमने अपने बच्चों के अंदर हीन भावना डाल दी कि अगर आप खूबसूरत नहीं हैं तो खुशकिस्मत नहीं हैं।

फिर जैसे ही वो यंग एज में आता है ...उसके बाद मार्केट खड़ा है ...फेयर एंड लवली लेकर...गोरेपन की तमाम तरह की क्रीम और हीन भावना की चेतावनी देते विज्ञापन साथ में।

Sunday, November 13, 2016

Glorification of past- our addiction

The world is always driven ahead by a forward-looking society. Only those who focus on the future can achieve success. I was once hearing a wise man speak. His analogy for this was interesting. He said, if a vehicle has to move forward, it must have a large windshield and a small rear view mirror. While one is driving a car, if the windshield were to be as small as the rear view mirror and vice versa, it would be the recipe for an accident.
These same accidents are commonplace in our society today. As a society, we are always busy in glorification of our past. Most of our time, energy & resources are being consumed in this glorification of past. On the contrary, the time we spend on future dreams and efforts to fulfil them are very little as compare to the past.
It’s like having a huge rear view mirror to look into the past and very small windshield. With this approach no society can become forward looking.
This needs to change, at least when it comes to education. Children in our classrooms must be encouraged to look forward more often than to focus on the past.

अतीत के गुणगान की लत

दुनिया फॉरवर्ड लुकिंग सोसाइटी यानी आगे की ओर देखने वाले समाज के सहारे चलती है। भविष्य पर नजर रखने वाले समाज के लोग ही सफल कहला सकते हैं। मैं एक दार्शनिक को सुन रहा था। उसने उदाहरण दिया कि समाज के आगे और पीछे देखने में कार के शीशों जितना अनुपात होना चाहिए। जैसे- अगर कार को आगे चलाना है तो उसका आगे देखने वाला शीशा बड़ा होना चाहिए। और पीछे देखने वाला शीशा उसके मुकाबले बहुत छोटा होना चाहिए। अगर कार चलाते वक्त हम पीछे देखने का शीशा बड़ा कर लें और आगे देखने वाले शीशे को एकदम छोटा कर दें, तो दुर्घटना का होना तय है।
यही दुर्घटना हमारे यहां लगातार हो रही है। हमने भी आगे देखने वाला अपना शीशा छोटा लगाया है और अतीत में झांकने का शीशा बड़ा है। कम से कम शिक्षा में तो इसे तुरंत बदलने की जरूरत है। हमारे क्लासरूम्स में बैठे स्टूडेंट्स की आदत भविष्य में झांकने की ज्यादा होनी चाहिए, अतीत में कम।

Saturday, November 12, 2016

A tendu gleaner woman

During the time when 'Salwa Judum' was much in the news, I had visited Chhattisgarh. I met a tribal woman who has decided to withdraw her son from school. The reason she stated for doing so was quite straightforward.
The poor woman, whose livelihood was based on gleaning tendu leaves, said something most important that all the educationists, educators and policy makers must listen. Her answer was an eye opener. She said that if her son continuous with the education he was getting, he stop assisting her in gleaning tendu leaves. And if he continuous and becomes educated, your system does not have job for him. He will be called 'unemployed'.
What is the point of enrolling him in a school, she asked, if it was going to make him jobless? She was better served with him working alongside her. The tribal woman's plight is a serious indictment of our education system

तेंदू पत्ता बीनने वाली एक महिला

एक वक्त जब सलवा जुडूम बहुत चर्चा में था, तो मैं छत्तीसगढ़ गया। वहां मैं एक आदिवासी महिला से मिला। उसका बच्चा स्कूल नहीं जाता था। उसने भेजना बंद कर दिया था। जब मैंने उससे वजह पूछी तो उसका जवाब बहुत सटीक था।
तेंदू पत्ता बीनने वाली उस मां ने बच्चे को स्कूल न भेजने का जो कारण बताया, वह हमारे सारे शिक्षा कार्यक्रम की पोल खोल देता है। उसने कहा- थोड़े दिन स्कूल में पढ़कर मेरा बच्चा तेंदू पत्ता बीनना बंद कर देगा। और आपके पास कोई ऐसा काम नहीं है कि पढ़ाई के बाद उसे दे दो। तेंदू पत्ता बीनेगा नहीं। आपके पास कोई काम-धंधा नहीं है जो पढ़ाई के बाद उसे मिल जाए। तो फिर मैं अपने बच्चे को बेरोजगार क्यों करूं? इसलिए मैंने उसे तेंदू पत्ता बीनने के काम में लगा दिया।
उस आदिवासी मां की बात हमारी सारी शिक्षा नीति पर एक करारा तमाचा है।

Friday, November 11, 2016

Neat, clean & well maintained, But …?

When I visit schools, I feel sad to see that children of grade 6, 7, 8 and 9 are not able to read their own textbooks. Once I was in a school having a nice building, led by a dynamic and energetic Principal. It was clean, well maintained, having a decent green cover in its campus. But when I entered a 10th grade classroom, I was taken aback by the poor quality of education. I saw a stack of leave applications in one corner of the room. In many of the applications, there were several spelling mistake. I asked all children to write in their sheets some of the common words misspelt in all applications. I found that an alarmingly large section of children had problems in spelling the simplest of words.
I was surprised to see that 20 percent of the students were not able to write words 'Shadi' (marriage) and 'Aapki' (Yours). Half of the students misspelled the word Vidyalaya (School). 70 percent of the students were not able to write Brahmin in Hindi.
And this was a senior class in one of the good Hindi medium schools!

साफ-सुथरे, बेहतरीन, लेकिन ...?

मैं जब स्कूलों में जाता हूं तो कई जगह छठीं, सातवीं, आठवीं, नवीं के बच्चे अपनी टेक्स्टबुक नहीं पढ़ पाते। एक बार मैं एक स्कूल में गया था। वहां की बिल्डिंग बहुत शानदार थी। साफ-सफाई थी। स्कूल में ग्रीनरी थी। प्रिसिंपल बहुत डायनेमिक और एनर्जेटिक थीं। पर जब मैं 10वीं के क्लासरूम में गया तो मुझे बहुत दुख हुआ। क्लासरूम में एक कोने में तीन लीव एप्लीकेशन टंगी हुईं थी। मैंने उठाया तो देखा कि वे तीनों एप्लीकेशन हिंदी में थीं। वे बच्चे हिंदी मीडियम के थे। लेकिन उन एप्लीकेशन में कई गलतियां थीं। कोई बच्चा शादी में जाने के लिए छुट्टी मांग रहा था तो उसमें ‘शादी’ में मात्रा गलत थी। एप्लीकेशन में ‘आपकी कृपा होगी’ लिखा था लेकिन ‘आपकी’ में मात्रा गलत थी। फिर मैंने उस क्लास के बच्चों से यही शब्द अपनी नोटबुक में लिखने के लिए कहा तो करीब 20 फीसदी बच्चों ने ‘शादी’ और ‘आपकी’ में गलत मात्राएं लगाईं। विद्यालय शब्द करीब 50 फीसदी बच्चों ने गलत लिखा। फिर मैंने बच्चों से ब्राह्मण शब्द लिखने को बोला तो करीब 70 फीसदी बच्चों ने गलत लिखा। ये हिंदी मीडियम की 10वीं क्लास के एक अच्छे स्कूल की स्थिति है।

Thursday, November 10, 2016

Jab Zeero Diya Mere Bharat Ne…

As an Indian citizen we keep glorifying our past by saying that' ZERO' was invented by us. We teach our students that zero were invented in India by Aryabhatt 1500 years back. But we never ask our self what we did after Aryabhatt invented zero for us. We just sung the song - ‘Jab zero diya mere Bharat ne…’ We are happy with songs of glorification only. Yes, its matter of pride that zero was invented by India but it should be matter of concern that it was not used by us to move ahead. Today, the same zero has been used by American & European scientist. The whole cyber world has been created by using zero. And what are we doing? We are following them for jobs. And glorifying our past like ritual prayers.

जब जीरो दिया मेरे भारत ने…

हम बड़ी शान से कहते हैं कि शून्य की खोज भारत ने की। डेढ़ हजार साल पहले आर्यभट्ट ने शून्य की खोज की। लेकिन साहब! शून्य की खोज के डेढ़ हजार साल बाद तक हमने क्या किया? हमने गाना गाया - जब जीरो दिया मेरे भारत ने दुनिया को तब गिनती आई। हम गाना गाकर खुश होते रहते हैं। शून्य की खोज भारत ने की थी। लेकिन हमने इसका इस्तेमाल नहीं किया। आज इसी शून्य में अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिकों ने पूरा साइबर वल् र्ड खड़ा कर दिया है। और हम क्या कर रहे हैं? हम, हमारे यहां के बेस्ट टैलेंटेड बच्चे, उनके द्वारा खड़े किए साइबर वल् र्ड में नौकरियां कर रहे हैं। और अपने अतीत के सामने अगरबत्तियां लेकर खड़े हैं, उसकी आरती उतार रहे हैं।

Wednesday, November 9, 2016

What respect do teachers command?

I have a question. What respect do teachers command? In their childhood, umpteen number of times every child is taught that ‘Guru Gobind Dou Khade, kake Lagoo Paye, balihari Guru aap ne Gobind diyo bataye ’Guru & Gobind both are standing and whom should I bow first. Guru says bow to Gobind. Student who wrote this translation got two marks and the one who wrote the meaning of the saying got full marks. But did the child actually understand how to respect teachers?

All the officers present here have been taught these lines and everyone would have received good marks writing it down in their exams. However, today we often witness teachers being pushed around in the offices of the same officers. They treat them as mere employees of the education department and not as teachers. Why are they unable to recognise them as Gurus and not just employees? It is because when these lines were taught to the officers they did not grasp the essence of these lines, but instead it was just a means for them to receive more marks. The thought process is that after becoming an officer, what is relevance of Kabir! If I was not taught to just cram the teachings of Kabir but was instead taught to test myself in the mirror shown by Kabir through his teachings, then Kabir would have always remained with me throughout my life.

शिक्षक का सम्मान कहाँ गया?

मेरा एक और सवाल है। टीचर का सम्मान कहां गया। बचपन से हर बच्चे को सैकड़ों बार रटाया जाता है- गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पांय। बलिदारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय। जिस बच्चे ने लिख दिया, वह 2 नम्बर पा गया। इसमें उसने मीनिंग लिख दिया कि कबीर दास जी ने क्या कहा है, उसको 10 में से 10 नंबर मिल गए। उसे समझ में नहीं आया कि गुरु का क्या सम्मान करना है? कैसे सम्मान करना है?

जितने भी अफसर बैठे हैं उन सबने ‘गुरु गोविंद…’ पढ़ा हुआ है। सबने ये लिखकर एग्जाम में नंबर पाए हैं। लेकिन अकसर होता है कि उनके दफ्तरों के बाहर गुरु यानी टीचर्स धक्के खाते रहते हैं। उनके सामने कोई टीचर आ जाता है तो वह शिक्षा विभाग का कर्मचारी दिखता है, गुरु नहीं।

क्यों नहीं दिखता? क्योंकि जब पढ़ाया गया था तो ‘गुरु गोविन्द..’ समझने के लिए नहीं पढ़ाया गया था। माक् र्स लाने के लिए पढ़ाया गया था। वो माक् र्स ले आया। अफसर बन गया। अब कबीर की क्या जरूरत है। अगर कबीर रटाया नहीं गया होता, समझाया गया होता, कबीर के आइने में मुझे मेरी अपनी तस्वीर देखने का अभ्यास कराया गया होता तो कबीर हमेशा साथ देता।

Tuesday, November 8, 2016

Chess for life

I went to a Chess competition which had more than 1500 student participants. I told the children that this competition would have one winner and one runner up and they would take the trophies home. But what would others take away? A defeat? Since, there can only be a winner and one runner up. I then asked, "Have most of you, then, come to lose? What is the point of coming here then?"

I told them, "Your coming here means that you know chess. Chess means we can understand and value all that we have, understand the value of each pawn, even of those who are on the sides. We can learn how to use each and every resource judiciously and wisely. And even when entire army isn't there, each soldier must fight with courage. You must all understand this point. This is what Chess is all about. Chess can teach us lot about life. Those who understand Chess can understand life. This is the real value of Chess. Hope you all learn this"

जीने के लिए शतरंज

मैं एक चेस कंपटीशन में गया था। वहां कम्पटीशन में 1500 से ज्यादा बच्चे आये थे। मैंने बच्चों से कहा कि जब आप लोगों का ये टूर्नामेंट खत्म होगा तो एक टॉपर होगा। एक रनर-अप होगा। बाकी क्या होंगे? एक ‘नंबर वन’की ट्रॉफी लेकर जाएगा। एक ‘नंबर टू’ की ट्रॉफी लेकर जाएगा। बाकी लोग क्या लेकर जाएंगे?हारकर जाएंगे? यहां हारने के लिए आए हैं क्या?फिर क्या फायदा हुआ आने का?

उनसे मैंने कहा, “यहां आने का मतलब है कि आप लोग चेस खेलना जानते हैं। चेस खेलने का मतलब क्या है? चेस का मतलब है कि हमारे पास जो कुछ हो, उसे सहेज कर रख सकें। एक-एक सिपाही की कीमत समझ सकें। सबसे बाजू में बैठे सिपाही की भी कीमत समझ सके। और सामने खड़े कोने में सिपाही की भी कीमत समझ सके। बहुत बुद्धिमानी से हर रिसोर्स को, हर संसाधन को बहुत बुद्धिमानी से यूज करें। एक- एक आदमी हमारे जिंदगी में जीतने लगे। एक-एक को बहुत अच्छे से इस्तेमाल करें। और जब पूरी फौज साथ न हो, मात्र एक सिपाही बचे, उसके बाद भी कैसे हिम्मत दिखाकर लड़ना है। यहां जितने आए हैं, बस उन्हें इतना ही समझना है- जिसे चेस खेलना आ गया, उसे जिंदगी जीना आ गया।“ यही चेस खेलने की वैल्यू है।

Monday, November 7, 2016

Science: A subject or way of thinking

I feel most disappointed when I visit the science classes. Why do we learn Science? Only to become engineers, doctors or scientists? If the student who is taught science does not have a scientific temper or a scientific thought process, then teaching science is a futile exercise. If an engineering student believes that just by reciting a ‘Hanuman Chalisa’,(s)he will clear the exam, then it would be safe to believe that her/his education is pointless. I am not opposing religious beliefs or practices, they have their own importance and their own place. But it is also important that our kids are absolutely clear in their minds that to score good marks in their exam, they would have to study better. Prayers would not earn you good marks in examinations. And if a student of science does not have a scientific thought process, then who will?

विज्ञान: सिर्फ एक विषय या सोचने के तरीका

सबसे ज्यादा अफसोस मुझे विज्ञान की क्लास में जाकर होता है। विज्ञान हम किसलिए पढ़ाते हैं?सिर्फ डॉक्टर-इंजीनियर या वैज्ञानिक की नौकरी करने के लिए। विज्ञान के छात्र की अगर सोच वैज्ञानिक नहीं हुई तो विज्ञान पढ़ना-पढ़ाना बेकार है। अगर इंजीनियरिंग का कोई स्टूडेंट्स ये मानता है कि हनुमान चालीसा पढ़ने से वो एग्जाम में पास हो जाएगा तो मान लीजिए उसकी पढ़ाई बेकार हो गई। मैं धार्मिक परंपराओं का विरोध नहीं हूं। उनका अपना महत्व है। उनकी अपनी जगह है। लेकिन ये भी जरूरी है कि हमारे बच्चों के दिमाग में ये बिलकुल स्पष्ट हो कि एग्जाम में बेहतर नंबर लाने के लिए पढ़ाई की जरूरत होती है। पूजा-पाठ-जाप से अच्छे नंबर नहीं मिलते। और अगर साइंस के छात्र की सोच साइंटिफिक नहीं हो सकती तो फिर किसकी होगी?

Sunday, November 6, 2016

What we teach KABIR?

I dont think there was anyone more honest and a more bitter critic than Kabir. We teach our children Kabir and his doctrines in the 6th class. After so many years of teaching Kabir, how many children imbibe Kabir in their lives? Forget about children, those who have done their Phd’s on Kabir, in the lives of how many of those do we see the reflection of Kabir? If we are unable to rise above religious superstition, caste distinctions and segregations based on notions of superiority and inferiority, what is the point of learning Kabir. The shortcoming is not in Kabir. He has shown society a clear mirror. But do we actually try to examine ourselves in this mirror? We limit our thought process to questions like who was Kabir, what were his teachings, what did these teachings mean and writing down how many lines would earn how much marks. The process of teaching Kabir and learning Kabir becomes an exercise in vain. What difference would it make if Kabir was not taught at all?

कबीर पढ़ाने का फायदा क्या?

कबीर से बड़ा स्पष्टवादी और कटु समीक्षक मुझे कोई नहीं दिखता। लगभग छठी क्लास से हम हर बच्चे को कबीर पढ़ाते हैं। इतने साल हो गए कबीर पढ़ाते-पढ़ाते। कितने बच्चों के जीवन में कबीर उतरा। स्कूल में पढ़ना तो छोड़िये जिन्होंने कबीर में पीएचडी कर ली, उनके जीवन में कबीर की बताई कितनी बातें नजर आती हैं। धर्म-पाखंड, जात-पांत, ऊंच-नीच से अगर हम नहीं निकल पाए तो कबीर पढ़ाने का फायदा क्या। कमी कबीर में नहीं है। कबीर तो सीधा-सीधा आइना दिखाते हैं। लेकिन कबीर के आइने में हम पढ़ने वाले कब खड़ा करते हैं। उसे तो लगता है, कोई कबीर थे, उनके दोहे क्या हैं, उनके भावार्थ क्या हैं और कितनी लाइनें लिखने पर कितने नंबर मिलते हैं। कबीर पढ़ने वाले का भी समय बेकार किया। और पढ़ाने वाले का भी। ना ही पढ़ाते तो क्या फर्क पड़ जाता।

Saturday, November 5, 2016

Gentleman

I saw the word ‘gentleman’ in a text book of my son. It was perhaps his nursery or kindergarten book from many years ago. There was a picture above the word of a man in a suit and tie and a bag in his hand. The purpose of this picture was to teach the meaning of the word ‘gentleman’ and its spelling to the child. We possibly achieved this purpose but in the process we did a great disservice to the child, we committed a crime. We etched a picture in the child’s mind that a gentleman is a person wearing a suit, boots and tie and holding a bag.

With this picture in mind, the child of a farmer, a teacher or a laborer will never consider his father a gentleman since they don’t wear suits. If occasionally a person wears a suit for a function or a marriage then child comments – wow you are looking like a gentleman!

Not only children but adults make the same comment and are even impressed. There is a difference between how we talk to an unknown person in suit versus how we talk to a person in a dhoti-kurta. How did this bias come in our society? Through such books, we inculcated this bias right from childhood.

This might be small thing. We don’t pay attention to such things. However, in our ignorance we pass on a lot of harmful biases to our children.

जेंटलमैन

मैंने अपने बच्चे की एक किताब में एक शब्द देखा- जेंटलमैन। शायद केजी या नर्सरी की किताब रही होगी। कई साल पहले। जेंटलमैन शब्द के ऊपर एक तस्वीर बनाई गई थी जिसमें एक सूटेड-बूटेड आदमी, टाई लगाए, बैग लिए खड़ा था। जेंटलमैन शब्द सिखाने के लिए हमने ये पिक्चर बनाई। हमें बच्चे को पिक्टोरियल ट्यूशन देना था। हमने बच्चे को जेंटलमैन की स्पेलिंग सिखा दी लेकिन साथ ही एक बड़ा अपराध भी कर दिया। उसके दिमाग में हमने एक तस्वीर बिठा दी कि जेंटलमैन का मतलब सूटेड-बूटेड, बैग लिये हुए, टाई लगाए हुए एक आदमी।

अब किसी किसान का बेटा, टीचर का बेटा, मजदूर का बेटा, अपने पिता को जिंदगीभर जेंटलमैन मान ही नहीं सकता क्योंकि वो सूटेड-बूटेड नहीं होते। और तो और अगर किसी शादी-पार्टी के लिए कोई व्यक्ति, कभी-कभार सूट-बूट पहन ले तो बच्चा झटके से पूछ लेता है- क्या बात है, आज बड़े जेंटलमैन लग रहे हो। और बच्चा ही नहीं बड़े-बड़े भी पूछ लेते हैं। और सिर्फ पूछते ही नहीं, प्रभावित भी रहते हैं। रास्ते चलते कोई धोती-कुर्ते वाला अनजान आदमी बात करे या सूट-बूट टाई वाला तो कितने बड़े लोगों के व्यवहार में अंतर नहीं होगा? ये सब समाज में कहां से आया? ऐसी ही किताबों से आया है। ये मानसिकता हम बचपन में ही पैदा कर देते हैं।

ये चीजें बहुत छोटी-छोटी हैं। हम इन पर ध्यान नहीं देते। अपने बच्चों को हम जाने-अनजाने ऐसी बहुत सी मूर्खतापूर्ण चीजें पढ़ाते आ रहे हैं।

Friday, November 4, 2016

Politeness only for school song

I went to another school for their school function. At the end of the function the students were asked to sing the school anthem - vidya dadati vinayam, vinayam dadati patratam - which means  Education makes us humble and humility enables us to achieve competence. However this message was not being practiced and humility was not part of the culture of the school. I noticed that for the last one hour the tone that the principal was using to give instructions to her subordinates or the tone in which some teachers were interacting with the students was clearly not polite. Perhaps it was too much to expect respectful attitude towards the worker serving us water. Humility was merely a mention in the school anthem; I could not see it being practiced by educated people in the ‘temple of education’.

विनय- सिर्फ स्कूल गीत में

विनयात याति पात्रताम। बड़ी अच्छी लाइन है। विद्या से विनम्रता आती है। और विनम्रता आपको योग्य बनाती है। लेकिन ये बात मुझे वहां के वातावरण में नहीं दिख रही थी। कहीं नहीं दिख रही थी। जिस लहजे में प्रिंसिपल साहिबा अपने मातहतों को पिछले एक घंटे से निर्देश दे रही थीं या कई अध्यापक भी बच्चों से जिस टोन में बात कर रहे थे। उसमें विनय कहीं नहीं थी। पानी पिलाने वाले सेवक तो शायद विनय से बात किये जाने के लिए बने ही नहीं थे। बस स्कूल के गीत में विनय थी। विद्या के मंदिर में पढ़े-लिखे लोगों के व्यवहार में मुझे कहीं विनय दिखाई नहीं दे रही थी।

Thursday, November 3, 2016

Don't waste time in the name of Education!


I often see many important subjects in our textbooks like sanitation, pollution, haterate, ego, cast creed religion etc.... But, when it comes to teaching these subjects in classrooms, they are taught like rituals.

On e day, during my schools visit, I reached a classroom where the subject of the day was - importance of cleanliness. The chapter was about Gandhi's ideas about cleanliness. Children had been made to memorize the merits of cleanliness. They had even been told about the Swachh Bharat Abhiyan. It struck me at that point that the classroom ceiling was populated with spider webs and a layer of dust had settled on desks. What was the point of the lesson? Children would reproduce the 4 rules of cleanliness they had rote learned and clear their examinations, but had they actually understood what cleanliness is and why it is so important? If they didn't understand it, then what was achieved through the lesson? Valuable time was wasted, both, of the teacher and the children.

पढ़ाई के नाम पर टाइम क्यों ख़राब करते हो?


अकसर हम जरूरी बातों की शिक्षा में चर्चा तो करते हैं लेकिन पढ़ाने के नाम पर केवल रस्म अदायगी करते हैं। मैं एक क्लास में गया। इत्तफाक से वहां, साफ-सफाई के बारे में पढ़ाया जा रहा था। चैप्टर था - गांधी जी साफ-सफाई के बारे में क्या कहते थे। हमारे जीवन में सफाई का क्या महत्व है ये भी रटा दिया। स्वच्छ भारत अभियान क्या है, ये भी बता दिया गया था। लेकिन मुझे हैरानी हुई कि इस क्लासरूम में ऊपर चारों कोनों में मकड़ी के जाले लगे हुए थे। डेस्क पर धूल जमी थी। इस औपचारिकता का क्या फायदा। बच्चे ने रट लिया। गांधी जी के सफाई के चार नियमों के बारे में एग्जाम में लिख देगा तो पास हो जाएगा। लेकिन क्या उसे सफाई समझ में आई?और अगर नहीं आई तो पढ़ाया क्यों? उसका भी टाइम खराब किया। अपना भी। 

Wednesday, November 2, 2016

Can our Education Guarantee that...?

My perspective on education is somewhat critical. I am raising questions regarding the achievements of the present education system. The questions in my mind are centered around the very purpose of being educated. I am not saying that nothing has been achieved so far. We owe, whatever progress we have made to the same education system.

Today, if we are able to communicate our views with lakhs of people in a matter of seconds, it’s because of education. Education in technology has broken down the barriers of caste and religion. My ability to use a mobile phone is not based on my caste or religious identity. The societal acceptance for slavery that existed over 500 years ago, did not survive thanks to education. There are many such credits for education. But there is a lot, what is not being done, what is yet to be delivered.

Today we have colleges and universities that can guarantee professional capacities of students who graduate from those institutes. IITs can guarantee that a Computer Science graduate is equipped to handle all kinds of problems related to programming. IIMs can guarantee that their graduates have the capacity handle management crises effectively. We have many such institutions that prepare students for performing their professional roles well. But can any of our institutes guarantee that their graduates will not become dishonest officers, doctors, engineers or managers? Can they guarantee their graduates will respect women and never commit sexual assault, never pollute the environment, never litter, never pick fights, never exploit people?

क्या शिक्षा गारंटी ले सकती है...?

शिक्षा के बारे में मेरा नजरिया थोड़ा क्रिटिकल है। मैं शिक्षा की उपलब्धियों को लेकर सवाल खड़े कर रहा हूं। मेरे सवाल शिक्षित होने के मकसद से जुड़े हैं। लेकिन मेरे सवाल उठाने का मतलब ये नहीं है कि अभी तक शिक्षा से कुछ हासिल नहीं हुआ है। आज हम जहां हैं, इसी शिक्षा की बदौलत हैं।

आज टेक्नोलॉजी के भरोसे ही हम एक सेकेंड में अपनी बात लाखों लोगों तक पहुंचा देते हैं। टेक्नोलॉजी की वजह से जाति-धर्म की दीवारें टूटी हैं। आज मेरे हाथ में मोबाइल है। और यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि मैं किस जाति या धर्म से आता हूं। 500 साल पहले गुलाम होना या रखना समाज की स्वीकृति में था। लेकिन आज किसी को न गुलाम होना स्वीकार है और न कोई गुलाम रखता है। ऐसी बहुत सारी उपलब्धियां शिक्षा की हैं। लेकिन मैं उसकी चर्चा करना चाहता हूं जो हासिल नहीं हुआ है। औऱ जिसकी जरूरत है।

आज हमारे पास ऐसे कॉलेज और यूनिवर्सिटीज हैं जो अपने यहां से पास होने वाले छात्रों के बारे में गारंटी ले सकते हैं। आईआईटी गारंटी ले सकता है कि हमारे आईटी डिपार्टमेंट से निकला बच्चा आईटी से जुड़ी हर समस्या को हल कर सकता है। आईआईएम से निकले छात्र के बारे में गारंटी ली जा सकती है कि बिजनेस के हर क्राइसिस को मैनेज कर सकता है। इस तरह बहुत से कॉलेज, इंस्टीट्यूट अपने सिखाए के बारे में गारंटी ले सकते हैं। लेकिन क्या कोई ऐसा इंस्टीट्यूट है जो गारंटी लेता हो कि हमारे यहां से पास हुआ छात्र बेईमान अफसर, इंजीनियर, डॉक्टर या मैनेजर नहीं बनेगा। क्या कोई संस्थान यह गारंटी ले सकता है कि हमारा पढ़ाया हुआ छात्र अपराध नहीं करेगा। क्या किसी स्कूल या यूनिवर्सिटी के बारे में गारंटी ली जा सकती है कि वहां से पढ़ा हुआ छात्र बलात्कार नहीं करेगा...प्रदूषण नहीं फैलाएगा... गंदगी नहीं फैलाएगा...झगड़ा नहीं करेगा...शोषण नहीं करेगा।